Friday, August 23, 2013

मुंबई, गैंग रेप के बहाने समाज पर हमला

मुंबई के परेल में फोटो जर्नलिस्ट के साथ गैंग रेप हुआ, महिलाओं के लिए सुरक्षित माने जाने वाले मुंबई शहर के बीचोंबीच वाले इलाके परेल में हुई यह घटना बदलते समाज का वीभत्स और कुत्सित रूप दर्शाती है। जनाक्रोश के बीच पुलिस ने कइयों को डिटेन किया, संभवत: सभी आरोपी पकड़े जाएंगे, कानूनी फिर अदालती कार्रवाई और फिर संभवत: सजा! यह घटना दिल्ली में 12 दिसंबर की घटना जैसी ही थी, फर्क सिर्फ बस का था। दूसरा और अहम फर्क यह कि मुंबई में ऐसा हुआ, जहां देर रात तक वर्किंग विमिंस घरों को लौटती हैं। यह सच है कि परेल के शक्ति मिल्स कंपाउंड का इलाका सूनसान है, लेकिन यहां तो रात एक बजे तक दूर-दराज रहने वाली महिलाएं बेफिक्र हो अकेले अपने घर सकुशल पहुंच जाती हैं।
महिलाओं के लिए दूसरे महानगरों से सुरक्षित मानी जाने वाली मुंबई में कानून-व्यवस्था से ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी यहां के नागरिकों की है। यह वही शहर है, जहां युगल उन्मुक्त हो कहीं भी आते-जाते हैं, इस शहर में ऐसी घटना शर्मिंदगी को भी शर्मसार कर देती है। यहां कोई सोच भी नहीं सकता कि शाम के वक्त ऐसा कुकृत्य हो सकता है। पहले लोग दिल्ली को कोसा करते थे कि वह रेप सिटी बनती जा रही है, लेकिन अब घटिया और घृणित मानसिकता इस कदर समाज को कोढ़ी बनाती जा रही है कि कोई भी जगह सुरक्षित नहीं कही जा सकती!
इस बीच यह भी एक कड़वा सच है कि मुंबई पुलिस रेप की घटना के 24 घंटे बाद भी किसी पुख्ता नतीजे पर नहीं पहुंच पाई, सबकुछ नॉर्मल समझकर किया जा रहा है। दिखावे के लिए आनन-फानन में दर्जनों लोगों को डिटेन किया, कइयों से पूछताछ की गई, एक गिरफ्तारी हुई और बाकी की तलाश जारी है। पुलिस प्रशासन भी समझता है कि कुछ दिन लोग हो-हल्ला मचाएंगे, फिर धीरे-धीरे सभी अपनी जिंदगी की भागमभाग में व्यस्त हो जाएंगे। इस शहर की आदत भी है कि बीती ताहि बिसार देहि, आगे की सुधि लेहि! जी हां, यहां लोग जिंदगी की रफ्तार से दो-चार होते हुए रास्ते में लगने वाले झटकों पर कुछ क्षण बिफरते हैं, फिर आगे बढ़ जाते हैं।
कुल मिलाकर असली परीक्षा आम आदमी (खासकर आम औरत) की है, जिसे अपनी और अपनों की सुरक्षा खुद ही करनी है। अब वह दौर बीत गया, जब हम नारी सम्मान की बातें करते थे। अब वह दौर है, जहां विज्ञापन भी नारी देखकर ही चलते हैं। कॉर्पोरेट सेक्टर में महिलाएं-लड़कियां रखी जाती हैं, ताकि ऑफिस का वर्क कल्चर खुशगवार बना रहे। स्कूल-कॉलेजों तक में फैशन परेड कराई जाती है। और तो और नेटवर्किंग साइट्स पर भी महिलाएं ही ज्यादा लाइक होती हैं। अब वैषयिक चर्चाएं कम और कामुक चर्चाएं ज्यादा होती हैं। हम बात तो सामाजिक पारदर्शिता की करते हैं, जिसमें नारी को समान सम्मान दिए जाने की दुहाई करते हैं, लेकिन सचाई यह है कि मानसिक रूप से पारदर्शिता नारी को उघाडऩे में ज्यादा रहती है। ऐसे में, बदलाव की जरूरत कानून-व्यवस्था, पुलिस-पड़ताल में नहीं, बल्कि मानसिक-सामाजिक क्षेत्र में ज्यादा है, क्योंकि दिल्ली की घटना या मुंबई की घटना घृणित मानसिकता और कुत्सित समाज की ही देन है।
सर्वेश पाठक

Tuesday, August 6, 2013

जिस दर पर पूरी होती हैं मन्नतें

कौमी एकता की मिसाल हज़रत मखदूम फकीह अली माहिमी की दरगाह

  • रमज़ान का पाक महीना, रोज़े का बीसवां दिन और हम जा पहुंचे खुदा का दरजा रखने वाले सूफी की मज़ार पर मत्था टेकने। जी हां, यहां जि़क्र हो रहा है दुनिया भर में मशहूर हज़रत मखदूम फकीह अली माहिमी की दरगाह का। लंबे अरसे से बाबा के दर पर जाने की मंशा थी और जब पहुंचे, तो मानो ज़ुबान को ताला लग गया और भूल गए सारी मन्नतें, सारी ख्वाहिशें। ऐसा लगा, जैसे खुद ब खुद पाक परवरदिगार हमसे रूबरू हो दिल की धड़कने गिन रहा हो। मज़ार की चादर को पलकों से लगाकर मत्था टेका, तो बाबा की प्यार भरी छुअन सिर पर महसूस की। कहते हैं खुदा अपने हर बंदे की खबर रखता है, ऐसे में ऊपर वाले से क्या कहना!

हज़रत मखदूम फकीह अली माहिमी की दर हर मज़हब, हर कौम के लिए एक है और यहां से लौटने वाले की झोली कभी खाली नहीं रहती। दरगाह पर हर खास ओ आम दस्तक देकर खुद को खुशनसीब समझता है। इतिहास का जि़क्र करें, तो हज़रत मखदूम फकीह अली माहिमी की पैदाइश अरब से आकर माहिम द्वीप पर बसे परिवार में सन 1372 ई. (776 हिजरी) में हुई थी। उनके वालिद इराक व कुवैत की सीमा से पहले गुजरात आए, इसके बाद वे मुम्बई के करीब कल्याण पहुंचे, फिर यहां माहिम में आकर बस गए, जहां बाबा मखदूम अली माहिमी पैदा हुए। मखदूम फकीह अली माहिमी बचपन से ही सूफी विचार रखते थे और उन्होंने रहस्यवाद तथा गैर रहस्यवाद के मिलेजुले सिद्धांत को आसान लफ्ज़ों में ढाल आम इंसान तक पहुंचाया। उनकी विद्वता व उदारता उनके ग्रंथों में सहज ही झलकती है। कोकण के नवैत परिवार से जुड़ा होने के नाते उन्हें 'कुतुब-ए-कोकण भी बुलाया गया। स्पेन के विश्व प्रसिद्ध सूफी संत मोइनुद्दीन इबने-ए-अरबी के शागिर्द रहे माहिमी गुजरात के अहमद शाह के शासनकाल में शहर के काजी बने। उनकी शोहरत दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती गई।

मखदूम अली माहिमी देश के पहले टिप्पणीकार बने, जिन्होंने पाक कुरआन को उर्दू व फारसी के सरल शब्दों में ढाला, जिसे दुनिया ने 'तफ्सिर-ए-रहमानी के नाम से नवाज़ा। उनके द्वारा लिखे ग्रंथ की पांडुलिपि की स्याही आज करीब सात सौ साल बाद भी उतनी ही चमकदार है, जो किसी अजूबे से कम नहीं! माहिमी ने उर्दू व अरबी भाषा में करीब बीस ग्रंथ लिखे, जिनमें अदालत-उत-तवहीद, मिरातुल हकीक तथा फिकाह मखदूमी विश्व विख्यात हैं। बाबा के चमत्कारों जुड़े तमाम किस्से दुनिया भर में मशहूर हैं। अरसे से दरगाह की खिदमत में लगे पीर मखदूम साहेब चॅरिटेबल ट्रस्ट के नूर परकार बताते हैं कि बाबा को बकरियों से बहुत प्यार था, एक बार जब बाबा कहीं बाहर गए थे, तो उनके घर एक बकरी का बच्चा अल्लाह को प्यारा हो गया, लौटने पर बाबा को पता चला, तो वे उस जगह पहुंचे, जहां बकरे की लाश पड़ी थी, बाबा ने आसमान में हाथ उठाकर दुआ की और बकरे से बोले उठ! फिर क्या था, बकरा उठ खड़ा हुआ, उस वक्त बाबा नौ साल के थे। ऐसे ही, एक जलसे के वक्त खाने के लिए हर शख्स ने कुछ न कुछ पकाया, फिर बाबा मछली खाकर हाथ धोने पहुंचे और जब उनके हाथ पर पानी डाला गया, तो हाथ में मौजूद मछली के कांटे जिन्दा मछली में तब्दील हो गए।

 ऐसे तमाम किस्से है, जो हर खासो आम के लिए किसी अजूबे से कम नहीं।दरगाह के बारे में यह किस्सा भी प्रचलित है कि अगर किसी को भूत, प्रेत, जिन्न आदि ने घेर रखा है, तो यहां आगे के रास्ते मज़ार जाकर मत्था टेकने और पीछे के रास्ते बाहर निकले से बुरी आत्माओं से पीछा छूट जाता है। यहां तक कि पुलिस वालों की भी बाबा में असीम श्रद्धा है और आला अधिकारी बाबा के हाजिरी जरूर लगाता है। यहां तक कि दिसंबर के दूसरे हफ्ते में शुरू होने वाले उर्स में बाबा की पहली चादर माहिम पुलिस की ओर से चढ़ाई जाती है। इसके पीछे तर्क है कि अंग्रेजी शासनकाल में कोई पुलिसकर्मी मुज़रिम से तंग आकर बाबा से उसे पकड़वाने की मन्नत मांग बैठा और वह पूरी हो गई, तभी से यह परंपरा निकल पड़ी और तब से आज तक पुलिस वालों की तमाम मन्नतें बाबा ने पूरी की हैं। नूर साहब के मुताबिक 28 वें रोजा और 29 वें शब को बाबा के हाथों के लिखे कुरआन-ए-पाक की जियारत (आम आदमी के दर्शन के लिए) कराई जाती है, जिसकी स्याही व कागज अभी भी जस का तस चमकदार है।
सर्वेश पाठक

Sunday, July 14, 2013

शहर को कोसने की बजाय संजोएं

शहर-दर-शहर भटकते-घूमते इन दिनों मुंबई में हूं। शहरों (खासकर पुराने शहर) में एक बात कॉमन होती है कि वहां नई-पुरानी दोनों तस्वीरें छलकती हैं, आधुनिकता के साथ ऊंची इमारतें है, तो तंग गलियों से ललकारती पुरानी यादें भी। सबसे खास बात यह है कि ज्यादातर पुराने शहरों में गंदगी होती ही है। अब मुंबई की बात करें, तो बारिश के दिनों में गंदगी गटर से निकलकर सड़कों गलियों में आ जाती है। यहां की मीडिया अपने तईं यहां के शासन-प्रशासन को जगाने-चेताने की पुरजोर कोशिश कर रही है, ताकि शहर को साफ-सुथरा बनाया जा सके। ज्यादातर पुराने शहरों का कमोबेश यहीं हाल है, जहां मौके-बेमौके गंदगी नजर आ ही जाती है। 
गंदगी और गालियो की बात है तो वो कौन सा पुराना शहर है जहा गंदगी नहीं या जहा लोग गाली-गलौज नहीं करते। गन्दी तो मुंबई भी है, जहा 70 फीसदी आबादी स्लम में रहती है। गन्दी तो दिल्ली भी है, जहा यमुना के आसपास से गुजरने वाले मुह ढक लेते है। क्या आप दिल्ली की यमुना, उज्जैन की शिप्रा में डुबकी लगा सकते है? सही मायने में पुराने शहरो के प्रशाशन और राज्य सरकार को चेताने की जरूरत है, जो यदा-कदा स्थानीय पेपर करते रहते हैं। लेकिन कुछ लोग फेसबुक, ट्विटर जैसे नेटवर्किंग साइट पर शहर का कुत्सित रूप रखने से नहीं चूकते। वे यह नहीं सोचते कि नेटवर्किंग साइट पर अजीबो-गरीब ताना बाना बुनकर likes & hits बटोरे जा सकते है, पर इससे शहर का भला नहीं होने वाला।
अगर हम सही मायने में अपने शहर के लिए कुछ करना चाहते हैं, तो पहली कोशिश यह होनी चाहिए कि अपने तईं गंदगी न फैलाएं और जितना हो सके गंदगी फैलने से रोकें। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है सिविक सेंस, जो हम आधुनिकता की आड़ में खोते जा रहे हैं। सिविक सेंस के साथ अवेयरनेस की जुगलबंदी कर अगर सभी अपने-अपने शहरों की सचमुच सफाई में जुट जाएं, तो भला कौन रोक सकता है आबोहवा बदलने से..!

Sunday, October 4, 2009

चुनावी चाशनी में मुद्दों की तासीर

जैसे-जैसे महाराष्ट्र में चुनाव की तारीख करीब आ रही है, मुद्दे बनाने और उन्हें लपकने की होड़ मची हुई है। इसी बीच, करण जौहर की फिल्म 'वेकअप सिड रिलीज हुई, तो राज ठाकरे की पार्टी मनसे को ज्वलंत मुद्दा मिल गया। फिल्म में मुम्बई को बॉम्बे बोला गया है, फिर क्या था! जगह जगह शुरू हो गया, फिल्म का विरोध! हड़बड़ाहट में करण जौहर भी जा पहुंचे राजा साहेब के दरबार मत्था टेकने। उन्होंने बाकायदा माफी मांगकर मामले को रफादफा किया। इसके बाद हर पार्टी को मौका मिल गया, शिवसेना ने कहा सिर्फ राज ठाकरे से माफी मांगने से नहीं चलेगा, समूचे महाराष्ट्र से माफी मांगो। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण कहने लगे, राज से माफी मांगने का मतलब ही नहीं था। कानून व्यवस्था के लिए सरकार है, लेकिन मुख्यमंत्री महोदय शायद यह भूल गए कि अभी साल भर पहले ही मनसे ने परप्रांतीय के मुद्दे पर जमकर आक्रामकता दिखाई थी और पुलिस प्रशासन, कानून व्यवस्था धरी की धरी रह गई थी। सड़क पर उतरी राजनीतिक गुंडागर्दी ने आम आदमी को मुश्किल में डाल रखा था और लोगबाग, टैक्सी-रिक्शा वाले पुलिस के सामने ही पिटते देखे गए। ऐसे में, करण जौहर अगर राजा साहेब के दरबार में माफी मांगने पहुंच गए, तो क्या अपराध कर दिया। अब तो आम आदमी भी समझने लगा है कि यदि इस शहर में सुकून से रहना है, तो राजा साहेब की छत्रछाया जरूरी है, क्योंकि कानून व्यवस्था की माथापच्ची से अच्छा है राज ठाकरे से गुहार लगाना। भले ही, वेकअप सिड परदे पर चले न चले, लेकिन करण के राज ठाकरे से माफी मांग लेने से फिल्म का प्रदर्शन बेखटके चल रहा है। राजा साहेब भी उदार हैं, जिन्होंने माफी मांगते ही फिल्म चलने दी और उन्हें फिल्म के डायलॉग में मुम्बई को बॉम्बे कहने पर भी एतराज नहीं है।
सर्वेश पाठक

Monday, September 28, 2009

विजय रावण की!

देश भर ने विजय दशमी मनाई, मुम्बई भी रावण का पुतला जलाने में पीछे नहीं रही। लेकिन, हर साल की तरह इस बार भी वहीं यक्ष प्रश्न कितने रावण जलाओगे- ग्लोबल वार्मिंग से लेकर ग्लोबल रिशेसन तक, पड़ोसी (देशों) की टेनशन से लेकर टेरेरिज्म तक, महंगाई से लेकर तनहाई तक, बीमारी से महामारी तक, राजनीति से समाज तक, साहित्य से पत्रकारिता तक, अर्श से फर्श और जीवन के उत्कर्ष (लिंग जांच व भ्रूण हत्या) तक हर डग पर रावण की दहाड़ व धमक महसूस की जा सकती है। फिर भी, हम कहते हैं कि हमने बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व मना लिया है, रावण को जला दिया है।
सर्वेश पाठक

Tuesday, September 22, 2009

गूंजा महाराष्ट्र में चुनावी बिगुल

जैसे जैसे राजनीतिक दल गठबंधन व प्रत्याशियों की औपचारिक घोषणा करते जा रहे हैं, वैसे वैसे महाराष्ट्र में चुनावी सरगर्मी तेज हो रही है। कुछ खुशी में नाम घोषित होते ही प्रचार में जुट गए, तो कुछ पार्टी का बैनर न मिलने से नाराज हो बगावत पर उतर आए। हर किसी को गठबंधन और मोर्चे की दरकार है। पार्टी का टिकट न मिलने से पिछले दिनों कुछ लोगों ने वरिष्ठ शिवसेना नेता के यहां हल्ला बोल दिया, तो कइयों ने अपनी पार्टी ही बदल दी। अभी 13 अक्टूबर को चुनावी महासंग्राम होना है, ऐसे में महाराष्ट्रीयन जनता का महाऊंट किस करवट बैठेगा, यह कहने में बड़े बड़ों को पसीने आ रहे हैं। पिछले चुनाव में राज ठाकरे की सेना को हल्के में लेने वाले बड़े राजनेता, विश्लेषक और टिप्पड़ीकार इस विधानसभा चुनाव में पांडित्य से बचने की कोशिश में हैं। खैर, हम भी सयाने नहीं बनेंगे और इंतजार करेंगे चुनाव के दिन व वोटों की गिनती का !
सर्वेश पाठक

Sunday, April 26, 2009

पीएम पर जूता, निशाना चूका

विरोध प्रगट करने के लिए अमरीकी राष्टï्रपति पर इराकी पत्रकार द्वारा फेंका गया जूता हमारे देश में जूतमपैजार का रूप ले चुका है। यह बीमारी कई नेताओं से होते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक पहुंच चुकी है।
पहले तो यह विरोध का तरीका कुछ समझ में भी आया, लेकिन अब तो जिसे देखो, जहां देखो, जिस किसी पर देखो...जूता फेंकते नजर आ जा रहा है। क्या यही सही तरीका है, विरोध जताने का...
यहां तक तो ठीक है कि राजनेता किसी के नहीं होते, लेकिन हमारी अपनी भी तो एक संस्कृति, एक मर्यादा और सामने वाले की भी एक पद की गरिमा है। कम से कम सस्ती लोकप्रियता और ओछे प्रचार से निकलकर हमें गंभीरता से इस अछूत कृत्य को रोकना चाहिए, वर्ना यह जूता विरोध प्रदर्शन की सीमा से निकलकर जहां, तहां सामान्य चर्चा सत्रों व आम बैठकों में भी नजर आने लगेगा। आप भी अपनी राय दर्ज कराएं...