जितना हम जानते हैं वही सच है और जैसे ही हमारी जानकारी बढ़ती है वैसे ही सच्चाई भी बदल जाती है ... इसलिए ज्यादा जानने से बेहतर है कम जानना
... ताकि हमारे सच का भ्रम लंबे समय तक बना रहे।
दिल से और दिमाग से खेले खूब पठान उनकी मेहनत से हुआ विजयी हिंदुस्तान विजयी हिंदुस्तान , पाक को दीखे तारे हाल किए गंभीर बहुत ही गौतम प्यारे दिव्यदृष्टि श्रीसंत दिखाए ऐसा जलवा बेलज्जत हो गया कराची वाला हलवा विश्व विजेता बन गई धोनी यूथ ब्रिगेड सारी दुनिया में चला सिक्का रांची मेड सिक्का रांची मेड खरा है जिसका सोना सोलह आने टंच भरा-पूरा हर कोना दिव्यदृष्टि तुम मैच नहीं , दिल जीते भाई इसीलिए अब दिल से ले लें आप बधाई!
cartoon
hindi languagers are killed in assam.
Vatsalya
डूब मरो हिंदुस्तांवालो...!
लानत इस खामोशी पर... कर्नल वी . वसंत ने भारत - पाक सीमा पर आतंकवादियों से लड़ते हुए जान दे दी। लेकिन मीडिया के लिए यह खबर नहीं बन सकी। आम भारतीय को जैसे इन विषयों में कोई दिलचस्पी नहीं रही। हो सकता है , सैनिक जान देने के लिए ही सेना में जाता है इसलिए किसी सैनिक की मौत पर न तो कोई हल्ला होता है और न ही कोई पॉलिटिशन बयान देता है। हमारा सैनिक आज जवाब चाहता है , आखिर उसके त्याग की इस देश के लिए कोई कीमत है या नहीं ?
पिछले तीन दिनों में तीन सीन भारतीय पटल पर उभरते हैं। तीनों ही दृश्यों में आतंकवाद स्थायी भाव है। संजू बाबा यानी संजय दत्त 1993 के बम्बई के सीरियल बम ब्लास्ट के सिलसिले में खतरनाक हथियार एके-56 राइफल रखने के दोषी पाए जाने पर 6 साल के लिए जेल भेजे जाते हैं , मो. हनीफ लंदन के ग्लास्गो एयरपोर्ट पर हमले के अभियुक्तों के साथ जुड़े होने के कारण ऑस्ट्रेलिया में गिरफ्तारी के बाद भारत वापस आते हैं , और तीसरा दृश्य है सीमा पर आतंकवादियों के साथ लड़ते हुए कर्नल वी. वसंत की अपनी जान न्यौछावर कर देते हैं।
आम भारतीय को संजू बाबा और हनीफ के साथ सहानुभूति हो रही है , जिसमें किसी को कोई परहेज़ भी नहीं होना चाहिए। लेकिन कर्नल वसंद ने किसी का क्या बिगाड़ा था , जिनकी मौत पर आंसू बहाने के लिए उनके परिवार के सिवाय कोई नहीं है ? राजकीय सम्मान के साथ तिरंगे में लिपटे हुए कर्नल के पार्थिव शरीर की अंत्येष्टि हो गई और बेंगलूर के संवेदनहीन शहर में किसी को इस बहादुर की याद नहीं आई। उसी दिन बेंगलूर में हनीफ भी पधार रहे थे , सबको उनका इंतजार था , मीडिया में लंबी-लंबी खबरें छप रही थीं , चैनलों पर 24 घंटे उनके बारे में तमाम रहस्योद्घाटन हो रहे थे , लेकिन कर्नल की बहादुरी की एक भी कहानी किसी की ज़ुबान पर नहीं थी।
संजू की सजा पर केंद्रीय मंत्रिमंडल को दुख होता है। हनीफ के साथ अल्पसंख्यकों के वोट का मामला जुड़ा था इसलिए कर्नाटक के मुख्यमंत्री से लेकर सभी तथाकथित सेक्युलर दलों के नेता उनके दर पर अपना चेहरा दिखाने से नहीं चूकना चाहते थे। केंद्र सरकार भी लंदन से लेकर ऑस्ट्रेलिया में चले ट्रायल पर नजरें गड़ाए हुए थी कि कहीं हनीफ के साथ कोई अन्याय न हो जाए। संजय और हनीफ के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए, इससे किसी की असहमति नहीं हो सकती लेकिन एक सैनिक जो देश के लिए आतंकवादियों से लड़ रहा था, उसके प्रति भी अन्याय तो नहीं होना चाहिए।
कर्नल वसंत की मौत पर यदि देश ने आंसू बहाए होते तो सैनिकों के हौसले और बुलंद होते। दुश्मन की गोली खाते समय उन्हें भरोसा होता कि वे एक कृतज्ञ देश के लिए जान दे रहे हैं। अमेरिका में एक-एक सैनिक की मौत पर वहां की सरकार से सवाल पूछे जाते हैं, और हमारे यहां उसकी मौत को एक छोटी-सी खबर बनाकर अखबारों में कहीं छाप दिया जाता है जिसे पढ़ने की भी किसी को फुर्सत नहीं है।
क्या इस स्थिति के लिए सिर्फ मीडिया जिम्मेदार है ? या हम भी कहीं चैन की नींद सोते-सोते यह भूल चुके हैं कि कोई हमारे लिए न सिर्फ अपने दिन और रात, अपना पारिवारिक सुख बल्कि अपनी जिंदगी भी कुर्बान कर रहा है ? क्या आपको भी लगता है कि कहीं कोई कमी है हममें, अगर हां तो कहां ? अपनी राय दीजिए। शायद आपकी बात इस देश की जनता को जगाने में मदद करे।
अलग हो गए ब्रिटनी और फेडरेलाइन
लॉस एंजलिस (एपी) : ब्रिटनी स्पीयर्स और केविन फेडरेलाइन के बीच तलाक हो गया हैं। ब्रिटनी की वकील लाउरा वेसर ने सोमवार को कोर्ट की सुनवाई के बाद कहा - उनमें तलाक हो गया है। कोर्ट आयुक्त ने तलाक, गुजारा भत्ता और बच्चे किसके पास रहेंगें इसके बारे में आदेश पर हस्ताक्षर कर दिया है।
वेसर ने कहा कि गुजारा भत्ता के लिए हुए समझौते को तब तक सार्वजनिक नहीं किया जाएगा जब तक कि इसे लागू नहीं कर दिया जाता। उनके बेटे 22 माह के सीन प्रिस्टीन फेडरेलाइन और 10 माह के जेडन जेम्स फेडरेलाइन किनके पास रहेंगे इसका फैसला 14 अगस्त की सुनवाई तक सीलबंद रहेगा।
हर आम आदमी खास बनने की चाहत रखता है, लेकिन जीवन के धक्के और रोजमर्रा के जुगाड़ उसे हमेशा आम ही रखते हैं। कुछ ऐसा ही मैने भी स्कूल कॉलेज के दिनों में सोचा था, लेकिन वक्त के थपेड़ों ने खास तो दूर आम भी नहीं बनने दिया। छोटे से शहर बनारस (काशी) में विविध डिग्रियां (पत्रकारिता भी शामिल है) बटोरने के बाद शुरू में विश्वस्तरीय विज्ञापन एजेंसी, फिर हिंदी समाचार दैनिक आज से पत्रकारीय शुरूआत की। फिर, भोपाल के राज एक्सप्रेस में कुछ वक्त गुजारने के बाद बीते चार सालों से मुम्बई में हूं। पहले सीएनबीसी (आवाज) के लिए काम किया, इन दिनों नवभारत टाइम्स से जुड़ा हूं। पत्रकारिता के पुरोधाओं के बीच कैसे 13 साल बीत गए, पता ही नहीं चला। आमोखास की रेलमपेल में सीखने की प्रक्रिया अनवरत जारी है।
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