Sunday, July 14, 2013

शहर को कोसने की बजाय संजोएं

शहर-दर-शहर भटकते-घूमते इन दिनों मुंबई में हूं। शहरों (खासकर पुराने शहर) में एक बात कॉमन होती है कि वहां नई-पुरानी दोनों तस्वीरें छलकती हैं, आधुनिकता के साथ ऊंची इमारतें है, तो तंग गलियों से ललकारती पुरानी यादें भी। सबसे खास बात यह है कि ज्यादातर पुराने शहरों में गंदगी होती ही है। अब मुंबई की बात करें, तो बारिश के दिनों में गंदगी गटर से निकलकर सड़कों गलियों में आ जाती है। यहां की मीडिया अपने तईं यहां के शासन-प्रशासन को जगाने-चेताने की पुरजोर कोशिश कर रही है, ताकि शहर को साफ-सुथरा बनाया जा सके। ज्यादातर पुराने शहरों का कमोबेश यहीं हाल है, जहां मौके-बेमौके गंदगी नजर आ ही जाती है। 
गंदगी और गालियो की बात है तो वो कौन सा पुराना शहर है जहा गंदगी नहीं या जहा लोग गाली-गलौज नहीं करते। गन्दी तो मुंबई भी है, जहा 70 फीसदी आबादी स्लम में रहती है। गन्दी तो दिल्ली भी है, जहा यमुना के आसपास से गुजरने वाले मुह ढक लेते है। क्या आप दिल्ली की यमुना, उज्जैन की शिप्रा में डुबकी लगा सकते है? सही मायने में पुराने शहरो के प्रशाशन और राज्य सरकार को चेताने की जरूरत है, जो यदा-कदा स्थानीय पेपर करते रहते हैं। लेकिन कुछ लोग फेसबुक, ट्विटर जैसे नेटवर्किंग साइट पर शहर का कुत्सित रूप रखने से नहीं चूकते। वे यह नहीं सोचते कि नेटवर्किंग साइट पर अजीबो-गरीब ताना बाना बुनकर likes & hits बटोरे जा सकते है, पर इससे शहर का भला नहीं होने वाला।
अगर हम सही मायने में अपने शहर के लिए कुछ करना चाहते हैं, तो पहली कोशिश यह होनी चाहिए कि अपने तईं गंदगी न फैलाएं और जितना हो सके गंदगी फैलने से रोकें। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है सिविक सेंस, जो हम आधुनिकता की आड़ में खोते जा रहे हैं। सिविक सेंस के साथ अवेयरनेस की जुगलबंदी कर अगर सभी अपने-अपने शहरों की सचमुच सफाई में जुट जाएं, तो भला कौन रोक सकता है आबोहवा बदलने से..!

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